उत्तर प्रदेश के पूर्वी छोर पर बसे कुशीनगर जनपद को भले ही आज विश्व भगवान बुद्ध ही परिनिर्माण स्थली के रूप में जानता है लेकिन इसके पूर्व भी कुशीनगर को विश्व स्तर पर लोग कुशावती, कुशीनारा, कुशनगर जैसे नामों से कुशीनगर को जानते थे। शान्ति अहिंसा और कर्तव्य प्रेरणता का प्रतीक यह कुशीनारा अतीत से अब तक बदलता ही रहा और आज बदलकर ऐसे पावदान पर खड़ा है जहां अतीत से अलग इसकी पहचान एक विस्तृत रूप रेखा के रूप में बन चुकी है। अब इसका इस कदर विकास हो रहा कि वर्षो पूर्व चलने वाली सवारियों से लेकर रहन-सहन और संस्कृतियों में विशेष बदलाव आता हुआ नजर आ रहा है। कुशीनारा प्राचीन से अब तक अपभ्रंसों के कारण अब कुशीनगर के रूप में जाना जाने लगा है जो पूर्व में समाप्त हो चुकी थी, अब धीरे-धीरे सरकार व आम जनता के साथ धर्मानुयायियों की सहायता से इसे विकसित किया जा रहा है। अब यहां अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा जिससे लाखों लोगों को रोजगार मिलने की सम्भावना है और इसी क्रम में मैत्रेय परियोजना जैसी एक बड़ी परियोजना लगाकर भगवान मैत्रेय के रूप में 500 फीट की विशाल प्रतिमा का निर्माण कर यहां बौद्ध धर्मानुयायी अवतरित होने वाले भगवान बुद्ध को उपहार स्वरूप देने के लिए अभी प्रयासरत है।
बताते चले कि कुशीनगर का अतीत भले ही कुशीनगर के लिए अच्छा न हो लेकिन इससे मिलने वाली प्रेरणा जनता को आत्मज्ञान के लिए विशेष रूप से प्रेरित करती रही है। कुशीनगर की धरती पर जनमानस को एकता की सूत्र में बांधने वाले महान आत्माओं ने जो कुछ किया उसका इतिहास गवाह है कि हर जगह हर कोने में यहां देवी-देवता सहित महापुरूषों ने अपने आदर्शो से कुशीनगर को प्रभावित करने का भरपूर प्रयास किया है शुरू अगर महात्मा बुद्ध से की जाये तो सदियों पूर्व महात्मा बुद्ध ने अतित का कुशावती नगर जिसे लोग कुशीनारा, कुशनगर के नाम से जाना करते थे वहॉ आकर अपने शिष्य आनन्द को जो उन्होंने उपदेश दिया शायद ही कभी किसी को मिला हो उपदेश के बाद कुशीनगर के तमाम क्षेत्रों में भ्रमण कर पुनः हिरणमती नदी के किनारे महात्मा बुद्ध ने परिनिर्माण प्राप्त किया और अपने आदशों के साथ इस कुशीनगर की धरती को पवित्र करते हुए एक पवित्र आत्मा की तरह यहॉ के जनमानस के लिए छोड़ दिया। कुशीनगर के हर कोने में अपनी अलग सादगी के साथ जैन धर्म के संस्थापक भगवान महावीर ने इसी कुशनगर से लगभग 20 किमी. दूरी पर बसे एक घनघोर जंगल जिसे पावा पूरी के नाम से लोग जाना करते थे। वहॉ जाकर अपने तमाम शिष्यों के साथ आम जनता को अपने आर्शिवादों के साथ आदर्शो को अपनाने के लिए प्रेरित किया तो वहीं कुशीनगर की धरती मर्यादा पुरूषोत्तम राम के पद से रौंदी गयी। योगी सिद्धनाथ व सुफी सन्त बुढ़नपीर से तपी कुशीनगर की धरती गौरवशाली इतिहास कहते बनता है। यह नगर अतीत से ही इतना विख्यात रहा की लोग इसे अपने जुबान से लिया करते थे। कुशीनारा के पूर्व कुशावती रहा। जिसकी महत्ता रामायण काल से ली गयी है। रघुवंश के सर्ग 15 श्लोक 97 में दर्शाया गया है कि स निवेश्य कुशावल्यां रिगुनामाकुशं कुशम्। शरावत्यां सतां सुक्तैः जनिताश्रुलवं लवम्। अर्थात स्थिर बुद्धि वाले राम ने शत्रु रूपी हाथियों के लिए अंकूश के समान भयदायक कुश को कुशवाती का राज दे दिया और मधूर बचनों में सज्जनों की ऑखों से प्रेमाश्रु की धारा बहाने वाले लव को सरावती का राज दिया गया। इस श्लोक से स्पष्ट होता है कि अतित में भी कुशीनगर कुशावती राज्य के रूप में विकसित रहा भगवान राम ने कुशनगर जैसी नगरी बसाई उस समय यहॉ रहे यहीं से राज्य किये और पुनः कौशल राज्य को लौट गये इस तरह अतित की कुशावती कौशल राज्य के अधीन थी लेकिन कुछ लोगों का ऐसा मत है। कि कुशावती पहले से बस चुकी थी इसका उदाहरण रामायण के 13/14 श्लोक से जिसमें कुशस्य नगरी रूपा विन्ध्यपर्वत गरीयसी। कुशावतौती नाम सा कृतारमेण धौमता। कुशावती के सन्दर्भ में भिन्न-भिन्न मत सुनने को मिले लकिन इसकी प्रमाणिता कुशीनगर के पक्ष में ही रही कुशजातक के पृष्ठ संख्या 531 पर कुशावती नगरी के इतिहास के विषय मंे काफी संकेत मिलता है जहॉ से स्पष्ट होता है कि प्राचीन काल के मल्ल राष्ट्र के रूप में कुशावती राजधानी हुआ करती थी जहॉ इक्ष्वांकु नामक राजा धर्मपूर्वक राज्य किये करते थे तो एक पुस्तक गोरखपुर जनपद और उसके क्षत्रीय जातियों के इतिहास के पृष्ठ 54 पर डा0 राजबली पाण्डेय ने लिखा है कि जिस तरह राजा चन्द्र केतु के नाम पर चन्द्रकान्ता नगरी बसायी गयी थी उसी प्रकार कुश के नाम कुशावती नगरी बसायी गयी थी। इतिहास के गर्भ में समाय कुशीनगर पर होने वाली टिप्पणीयों ने आज साबित कर दिया है कि सुप्रसिद्ध मल्ल राज्य की राजधानी कुशावती, कुश स्थली, कुशीनारा, कुशीग्रामक, कुशनगर तथा वर्तमान में कुशीनगर हो गयी है पालीग्रन्थ महावंश तथ द्विप वंश भी इस कुशीनगर की इतिहास की पुष्टि करते है तक्षशीला के राजा तालेश्वर के पुत्र ने वहॉ से हट कर कुशावती को राजधानी बनाया जहॉ उसके बाद 12 वें राजा सुदिन्न तक राजधानी बनी हुयी हालाकि तथा गत भगवान बुद्ध ने इसी दरम्यान कुश व सुदर्शन नामक महा प्रतापी राजा हुए जिसका वर्णन किया है। यह दीर्घ निकाय से मिलता है। महाभारत काल की स्थिति को देखा जाय तो मुख्य मल्ल और दक्षिणी मल्ल के रूप में दो शाखाओं का उल्लेख मिलता है। इन दोंनों राज्यों को सम्भवत काकुत्था नदी जिसे कुकु भी कहते है अलग करती थी। उल्लेखनीय है बौद्ध धर्मावलम्बि क्षत्रीयों को अनेक सह ब्राह्मण ग्रन्थों में बरात्य, वृषल आदि घृणित उपाध्या दी गयी है हालाकि अन्य सभी साक्षियों से मल्ल इक्षवांकु बंशी ज्ञात होते बाल्मिकी रामायण में मल्लों को लक्ष्मण पुत्र चन्द्रकेतु मल्ल का बंशज कहा गया है। इसी क्रम ईसा पूर्व छठी शताबदी में कुशीनारा व जनपद का पावा नगरी दोंनो विकसित हो चुके थे। जिसके साथ ही उत्तरी भारत भी कई भागों में विभाजित हो चुका था। इन में कुछ राजतंत्र कुछ गणतंत्र के आधार पर चल रहे थे। कुशीनारा व पावा दोंनो पूर्व विकसित गणतंत्र थे। कुरू पंचाल, सुरशेन, कौशम्बी, काशी, कोशल, लिक्षवी मल्ल, विदेह राजगिरी तथा अन्य प्रमुख राज्य थे। कुशीनारा वा पावा पूर्ण के विकसित मल्लों के गणतंत्र में महात्मा बुद्ध ने दो बार वर्षावास किया था और यहॉ के लोगों को दीक्षित किया था। जिसमें दब्बा, बन्धुल तथा उसकी पत्नी मलिका प्रमुख थी साथ ही यज्ञ दत्य, रोजमल्ल, आयुष मल्ल, बज्रपांणी मल्ल तथा दीर्घ कारायण आदि कई लोेगो ने भी दीक्षा लिया यह सब कुशीनारा के मल्ल नागरिक थे।
कुशीनगर की समष्द्वि व वैभव मौर्य सम्राज्य के साथ समाप्त हो गयी तथागत के निवार्ण के कुछ ही दिनों बाद ही मगध के राजा प्रसेनजीत ने कुशीनगर पर अधिकार कर लिया। यहॉ पर महापद्यम नंद,चन्द्रगुप्त मौर्य सहित कई राजाओं नें राज किया किन्तु अशोक के समय इसकी प्रमाणिकता मिलती है। सम्राट अशोक ने कुशीनगर की यात्रा की और एक लाख मुद्रा देकर चैत्य का निमार्ण कराया था। ईसा से पूर्व चौथी शताब्दी से लेकर ग्यारहवीं शताब्दी तक इसका बिकाश एक तीर्थ स्थल के रूप में रह गया। में कुशीनारा व जनपद का पावा नगरी दोंनो विकसित हो चुके थे। ग्यारहबीं शताब्दी से लेकर उन्नीसबीं शताब्दी के उतरार्द्ध तक का काल अन्धकार युग कहलाता है। इस काल में कोई निर्माण नहीं मिल हो सका है जो मंदिर स्तुप या विहार किसी समय निर्मित हुए थे। समय के गति के साथ धारी साही होते गये। इनका प्रमाणित इतिहास आज भी उपलब्ध नहीं है। पर इतना जरूर है कि मुस्लिम शासकों ने कई बार आक्रमण पर कुशीनगर को विनाश के गर्त में विलीन कर दिया। मुहम्मद बिन खिलजी के आक्रमण के बाद इस क्षेत्र का सर्वांगीण विकास विनाश की तरफ उनमुख होता गया और यह क्रम धीरे-धीरे ऐसा चला कि लोग कुशीनगर का नाम तक भुल गये विभिन्न स्थानीय नामों से कुशीनारा को सम्बोधित करने लगे। विनाशा के बाद जो स्तुप तथा विहार भग्नावशेष बचे रहे लोगों ने नया नाम दे दिया लोग माथा कुवॅर कोट के नाम से पुकारने लगे। समस्त टीले लगभग 10 एकड़ में इधर - उधर बिखरे हुए पड़े थे। इन्हीं टीलों के एक स्थान पर एक पत्थर की मुर्ती पड़ी हुयी थी सम्भवतः इसी लिए यह किला माथा कुवॅर कोट के नाम से स्थानीय जनता में प्रसिद्ध था। बरसात के दिनों में इस ऊॅचे भू-भाग पर घास उगाते थें और यह इस मैदान को लोग चारागाह के रूप में उपयोग करते थे।
इत्तेफाक कहिएं की अंग्रेजी हुकुमत के स्थापना के बाद राजकीय अधिकारी इसी कुशीनारा के सर्वे कार्य के लिए आते जाते रहे। जिसमें बुशन्न, विल्सन तथा कनिंघम प्रमुख थे। कुशनन 1830 ई0 के आस-पास कुशीनारा आया और कसिया में ठहरा उसने इस स्थान के निरीक्षण करने के बाद लन्दन के प्रकाशित एक पत्रिका में अपने लेख टोगों ग्रेफी एण्ड स्टेटिरिटनस ऑफ र्दस्टर्न इण्डिया 1838 में इस स्थान को माता कुवॅर लिखा है। लेकिन उसने ऐसा कोई सन्दर्भ नहीं उल्लेखित किया कि जो बौध धर्म से सम्बन्धित कुशीनारा होने का इसे प्रमाणित करता हों। उसके बाद एच0एच0 विल्सन ने 1854 ई0 मंे इस स्थान को देखा और सम्भावना व्यक्त की कि कसिया ही कुशीनगर है। पुनः भारत सरकार सर्वे पर जर्नरल कनिंघम 1862 मंे आया। भारतीय पुरातत्व का उसे विशेष ज्ञान था। उसने माथा कुवॅर को कोट को फोर्ट ऑफ डेड प्रिंस लिखा उसकों अनुमान था कि माथा कुंवर मष्त कुमार का अपभ्रंस है और सम्मयत अध्ययन के बाद कनिंघम इस निष्कर्ष पर पहूॅचा कि यह स्थान मष्त साम्य कुमार बुद्ध से सम्बन्धित है। जिसके सापेक्ष उसने मत दिया कि यहीं स्थान महात्मा बुद्ध के परिनिर्माण का स्थान कुशीनारा है। कनिंघम के पश्चात एक सहायक ए0सी0 कारलाइल कुशीनगर में 1876 मंे आया इसकी विस्तष्त खुदायी करायी मलवे हटाने के पश्चात स्तूप का प्राचीन रूप प्रत्यक्ष होने लगा। इसके साथ पश्चिम दिशा में समीप ही भगवान बुद्ध की लेटी हुयी प्रतिमा मिली जिससे यह स्पष्ट हो गया है कि यहीं स्थान कुशीनारा है। 1930 ई0 से पूर्व इस स्थान को माथा कुवॅर के नाम से जाना जाता रहा। प्राचीन बौद्ध साहित्य ने कुशीनारा के नाम से सम्बोधित किया जाता रहा। कुशीनारा से कुशीनगर नाम 1934 ई0 में प्रचार में आया और जगत प्रसिद्ध हुआ। वहीं चीनी यात्री फह्यान 410 ई0 में अपने देश चीन से चला था। वह चीन के मोबी मरूस्थल से होता हुआ उत्तर पश्चिम भारत में प्रवेश करता हुआ तक्षशीला पुरूषपुर, मथूरा, कान्यकुब्ज शाख, श्रावस्ती, कपिलवस्तु होता हुआ कुशीनारा पहॅुचा था। पुनः बैशाली पाटलीपुत्र राजगिरि होता हुआ नाव द्वारा लंका चला गया और वहा से चीन वापस लौट गया। इस यात्रा में उसे 13 वर्ष लगे थे उसने अपने यात्रा के वष्तान्त में लिखा था कि नगर के उत्तर साल के दो वष्क्षों के बीच निरंजना नदी के किनारे पर भगवान के उत्तर सिर करके परिनिर्वाण प्राप्त करने का स्थान है। सुभद्रवती के अर्हत होने का स्थान है सुवर्ण की नाव में भगवान की 7 दिन पुजा करने का स्थान है। बज्रपाणि के स्वर्ण गदा भेकने का स्थान है और 8 राजाओं का धातु का अंश लेने का स्थान है। सब जगह स्तूप बने हुए है। संघाराम है जो अब तक है। नगर के बस्ती कम व विरल है। नगर उजार पड़ा है, तो वहीं ह्वेनसांग जो फह्यान से दो वर्ष बाद भारत आया उसने अपने यात्रा के वष्तांत में लिखा कि इस राज्य की राधानी बिल्कूल ध्वस्त हो चुकी है इसके नगर तथा गॉव जनशून्य तथा उजाड़ है। प्राचीन ईंटों की दीवारें है जिनकी केवल बुनियादें रह गयी है। राजधानी चारों तरफ 10 मीटर की घेरे में है। नगर के निवासी बहुत थोड़े और मुहल्ले उजाड़ है। नगर के द्वार के पुर्वोत्तर कोने में स्तूप अशोक का बनवाया हुआ है। नगर के उत्तर पश्चिम 3-4 मीटर दूर अजीत नदी के उस पार अर्थात पश्चिम तट पर पहूचे जहां इस बाग मेें चार साल के वष्क्ष बहुत ऊँचे है। यह तथागत के मष्त्यु स्थान को सूचित करते है यहा ईटो का बना बिहार है। इसके अन्दर बुद्ध देव की मुर्ती एक निर्वाण मुद्रा में बनी हुयी है। वह सोते पुरूष के समान उत्तर दिशा में सिर करके लेटी हुयी है। बिहार के पास एक स्तूप बना हुआ है जो खण्डहर हो गया हैं इसकी ऊॅचाई 200 फीट है इसके आग एक स्तम्भ खड़ा हुआ है। इस पर तथागत का एक इतिहास लिखा हुआ है।
ह्वेनसांग ने कई स्तूपों का वर्णन किया है। एक स्तूप उनके पूर्व जन्म के विवरण का है। उस समय वह एक पक्षी के रूप में थे। उस समय उन्होंने वन में लगी आग को बुझा कर पक्षियों को जलने से बचाया था। एक अन्य स्तूप सुभद्रब्राह्मण का है इसी प्रकार द्रोण के मरने के स्थान पर भी एक स्तूप बना है। नगर के उत्तर नदी के उस पर 300 पग चलकर एक बहुत बड़ा स्तूप बना है यह वहंी स्थान है जहॉ तथागत के शरीर का अग्नि संसकार किया गया था जो कोयला तथा भस्म के संयोग से अभी वह भूमि श्यामयुक्त पीली है। दोंनो चीनी चात्रियों के स्मर्ण से कुशीनगर के प्राचीन स्थिति पर प्रकाश पड़ता है और इससे जाहिर होता है कि कुशीनारा वर्तमान एक किमी0 दूर दक्षिण पूरव में बसा था। बीच में अजीत नामक नदी बहती थी इससे स्पष्ट होता है कि कुशीनारा अनुरूदवां तथा उसके पूरव में बसा था हालाकि फ्यूर्रर का मत है कि कुशीनगर की अधिकांश ईंटे तथा पुरातात्विक साक्ष्य लुप्त हो गये है। इसके खण्डहर आज भी दृष्टिगोचर नहीं हो रहे है। यह सभी भूमि में विलिन हो गये है यह माना जा सकता है कि छोटी गण्डक नदी मे आयी बाढ़ से प्रभावित हुए या उसके मार्ग परिवर्तन के कारण कट कर धारा मंे विलिन हो गये। कुशीनगर के पूरव में आज भी उस नदी का छोड़ा हुआ भाग दिखायी देता है। कुशीनगर का वर्तमान अनवेषक ए0सी0 कारलाइल में अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि खोदायी के समय ऐसे चिन्ह में जैसे ज्ञात होता है कि कभी कोई नदी यहॉ बहती थी उसके उत्तर पूर्वी खण्डहरों के ऊपर बालू की बारिक परते मिली पडी थी। सम्भव है कि उसी नदी की बालू की बारिक परते बिछ गयी हों। उत्खन्नों से प्राप्त हुआ कि बुद्ध परिनिर्वाण स्थली कुशीनगर का वह दिव्य स्थान यहीं है। इसी क्रम में 1904 तथा 1907 ई0 में जे0पी0एन0 गोयल तथा 1910 से 19112 में हीरानन्न शास्त्री के निर्देशन में खुदाई का कार्य चला इस उत्खन्न में कई मुद्राएं मिली जिस पर श्री महापरिनिर्वाण बिहारें भिक्षुसंघस्य कुशीनगर तथा ताम्रपत्र पर परिनिर्वाण र्चैत्य ताम्रपट्टय अंकित था जिससे स्पष्ट हो गया कि यहीं भगवान बुद्ध की परिनिर्वाण स्थली है 1911 में 7 मार्च को पण्डित हीरानन्द शास्त्री के पुत्र सच्चिदानन्द वात्सायन अज्ञेय का जन्म कुशीनगर स्थित माथा कुवॅर मंदिर के पास एक शिविर में हुआ था।
आज कुशीनगर वर्तमान परिस्थितियोें में विश्व के मानचित्र पर एक बौद्धतीर्थ के रूप मे विख्यात हो चुका है। यहॉ जनता शासन व धर्मानुयायियों के सहायता से मैत्रेय परियोजना जैसी विशालकाय परियोजना जिसके तहत भगवान मैत्रेस भगवान बुद्ध की 500 फीट ऊँची प्रतिमा बनायी जायेगी। यहां के स्तूपों ध्वंनसावशेष प्राचीन खण्डहरो, सभागार स्तूप एवं तमाम जनकल्याणकारी योजनाओं को लगाकर कुशीनगर के जनता के विकास के लिए शासन धर्मानुयायी प्रयासरत है। वर्तमान कुशीनगर महापरिनिर्वाण मंदिर स्तूप, माथाकुंवर का मंदिर, विहारों के ध्वंसावशेष, प्राचीन राजधानी के खण्डहर सभागर, स्तूप, हरिण्यावती नदी, निर्वाण धर्मशाला, अष्टधातु निर्मित विशाल घंटा, भिक्षु महावीर की समाधि, भिक्षु सीमाग्रह, शरणार्थी धर्मशाला, विड़ला धर्मशाला, चीनी मंदिर आज भी तथागत भगवान बुद्ध की यादों को तरोताजा कर देती है यहां आने वाले बौद्ध अनुयायी, बौद्ध भिक्षु अपने आप में बड़ा शान्ति पाते है उनकी मनोकामना यहीं रहती है कि हम बसे तो कुशीनगर जो आज भीड़युक्त शहर के रूप मे विकसित होता जा रहा है। जहॉ यातायात के साधन के रूप में हवाई यात्रा व अच्छे होटल, जो आगन्तुकों को बेहतर सुविधा देने के लिए शासन इसके व्यवस्था में जुटा है और प्रयास कर रहा है कि अतिशीघ्र इस बौद्ध परिपथ को विकसित किया जाय।
बताते चले कि कुशीनगर का अतीत भले ही कुशीनगर के लिए अच्छा न हो लेकिन इससे मिलने वाली प्रेरणा जनता को आत्मज्ञान के लिए विशेष रूप से प्रेरित करती रही है। कुशीनगर की धरती पर जनमानस को एकता की सूत्र में बांधने वाले महान आत्माओं ने जो कुछ किया उसका इतिहास गवाह है कि हर जगह हर कोने में यहां देवी-देवता सहित महापुरूषों ने अपने आदर्शो से कुशीनगर को प्रभावित करने का भरपूर प्रयास किया है शुरू अगर महात्मा बुद्ध से की जाये तो सदियों पूर्व महात्मा बुद्ध ने अतित का कुशावती नगर जिसे लोग कुशीनारा, कुशनगर के नाम से जाना करते थे वहॉ आकर अपने शिष्य आनन्द को जो उन्होंने उपदेश दिया शायद ही कभी किसी को मिला हो उपदेश के बाद कुशीनगर के तमाम क्षेत्रों में भ्रमण कर पुनः हिरणमती नदी के किनारे महात्मा बुद्ध ने परिनिर्माण प्राप्त किया और अपने आदशों के साथ इस कुशीनगर की धरती को पवित्र करते हुए एक पवित्र आत्मा की तरह यहॉ के जनमानस के लिए छोड़ दिया। कुशीनगर के हर कोने में अपनी अलग सादगी के साथ जैन धर्म के संस्थापक भगवान महावीर ने इसी कुशनगर से लगभग 20 किमी. दूरी पर बसे एक घनघोर जंगल जिसे पावा पूरी के नाम से लोग जाना करते थे। वहॉ जाकर अपने तमाम शिष्यों के साथ आम जनता को अपने आर्शिवादों के साथ आदर्शो को अपनाने के लिए प्रेरित किया तो वहीं कुशीनगर की धरती मर्यादा पुरूषोत्तम राम के पद से रौंदी गयी। योगी सिद्धनाथ व सुफी सन्त बुढ़नपीर से तपी कुशीनगर की धरती गौरवशाली इतिहास कहते बनता है। यह नगर अतीत से ही इतना विख्यात रहा की लोग इसे अपने जुबान से लिया करते थे। कुशीनारा के पूर्व कुशावती रहा। जिसकी महत्ता रामायण काल से ली गयी है। रघुवंश के सर्ग 15 श्लोक 97 में दर्शाया गया है कि स निवेश्य कुशावल्यां रिगुनामाकुशं कुशम्। शरावत्यां सतां सुक्तैः जनिताश्रुलवं लवम्। अर्थात स्थिर बुद्धि वाले राम ने शत्रु रूपी हाथियों के लिए अंकूश के समान भयदायक कुश को कुशवाती का राज दे दिया और मधूर बचनों में सज्जनों की ऑखों से प्रेमाश्रु की धारा बहाने वाले लव को सरावती का राज दिया गया। इस श्लोक से स्पष्ट होता है कि अतित में भी कुशीनगर कुशावती राज्य के रूप में विकसित रहा भगवान राम ने कुशनगर जैसी नगरी बसाई उस समय यहॉ रहे यहीं से राज्य किये और पुनः कौशल राज्य को लौट गये इस तरह अतित की कुशावती कौशल राज्य के अधीन थी लेकिन कुछ लोगों का ऐसा मत है। कि कुशावती पहले से बस चुकी थी इसका उदाहरण रामायण के 13/14 श्लोक से जिसमें कुशस्य नगरी रूपा विन्ध्यपर्वत गरीयसी। कुशावतौती नाम सा कृतारमेण धौमता। कुशावती के सन्दर्भ में भिन्न-भिन्न मत सुनने को मिले लकिन इसकी प्रमाणिता कुशीनगर के पक्ष में ही रही कुशजातक के पृष्ठ संख्या 531 पर कुशावती नगरी के इतिहास के विषय मंे काफी संकेत मिलता है जहॉ से स्पष्ट होता है कि प्राचीन काल के मल्ल राष्ट्र के रूप में कुशावती राजधानी हुआ करती थी जहॉ इक्ष्वांकु नामक राजा धर्मपूर्वक राज्य किये करते थे तो एक पुस्तक गोरखपुर जनपद और उसके क्षत्रीय जातियों के इतिहास के पृष्ठ 54 पर डा0 राजबली पाण्डेय ने लिखा है कि जिस तरह राजा चन्द्र केतु के नाम पर चन्द्रकान्ता नगरी बसायी गयी थी उसी प्रकार कुश के नाम कुशावती नगरी बसायी गयी थी। इतिहास के गर्भ में समाय कुशीनगर पर होने वाली टिप्पणीयों ने आज साबित कर दिया है कि सुप्रसिद्ध मल्ल राज्य की राजधानी कुशावती, कुश स्थली, कुशीनारा, कुशीग्रामक, कुशनगर तथा वर्तमान में कुशीनगर हो गयी है पालीग्रन्थ महावंश तथ द्विप वंश भी इस कुशीनगर की इतिहास की पुष्टि करते है तक्षशीला के राजा तालेश्वर के पुत्र ने वहॉ से हट कर कुशावती को राजधानी बनाया जहॉ उसके बाद 12 वें राजा सुदिन्न तक राजधानी बनी हुयी हालाकि तथा गत भगवान बुद्ध ने इसी दरम्यान कुश व सुदर्शन नामक महा प्रतापी राजा हुए जिसका वर्णन किया है। यह दीर्घ निकाय से मिलता है। महाभारत काल की स्थिति को देखा जाय तो मुख्य मल्ल और दक्षिणी मल्ल के रूप में दो शाखाओं का उल्लेख मिलता है। इन दोंनों राज्यों को सम्भवत काकुत्था नदी जिसे कुकु भी कहते है अलग करती थी। उल्लेखनीय है बौद्ध धर्मावलम्बि क्षत्रीयों को अनेक सह ब्राह्मण ग्रन्थों में बरात्य, वृषल आदि घृणित उपाध्या दी गयी है हालाकि अन्य सभी साक्षियों से मल्ल इक्षवांकु बंशी ज्ञात होते बाल्मिकी रामायण में मल्लों को लक्ष्मण पुत्र चन्द्रकेतु मल्ल का बंशज कहा गया है। इसी क्रम ईसा पूर्व छठी शताबदी में कुशीनारा व जनपद का पावा नगरी दोंनो विकसित हो चुके थे। जिसके साथ ही उत्तरी भारत भी कई भागों में विभाजित हो चुका था। इन में कुछ राजतंत्र कुछ गणतंत्र के आधार पर चल रहे थे। कुशीनारा व पावा दोंनो पूर्व विकसित गणतंत्र थे। कुरू पंचाल, सुरशेन, कौशम्बी, काशी, कोशल, लिक्षवी मल्ल, विदेह राजगिरी तथा अन्य प्रमुख राज्य थे। कुशीनारा वा पावा पूर्ण के विकसित मल्लों के गणतंत्र में महात्मा बुद्ध ने दो बार वर्षावास किया था और यहॉ के लोगों को दीक्षित किया था। जिसमें दब्बा, बन्धुल तथा उसकी पत्नी मलिका प्रमुख थी साथ ही यज्ञ दत्य, रोजमल्ल, आयुष मल्ल, बज्रपांणी मल्ल तथा दीर्घ कारायण आदि कई लोेगो ने भी दीक्षा लिया यह सब कुशीनारा के मल्ल नागरिक थे।
कुशीनगर की समष्द्वि व वैभव मौर्य सम्राज्य के साथ समाप्त हो गयी तथागत के निवार्ण के कुछ ही दिनों बाद ही मगध के राजा प्रसेनजीत ने कुशीनगर पर अधिकार कर लिया। यहॉ पर महापद्यम नंद,चन्द्रगुप्त मौर्य सहित कई राजाओं नें राज किया किन्तु अशोक के समय इसकी प्रमाणिकता मिलती है। सम्राट अशोक ने कुशीनगर की यात्रा की और एक लाख मुद्रा देकर चैत्य का निमार्ण कराया था। ईसा से पूर्व चौथी शताब्दी से लेकर ग्यारहवीं शताब्दी तक इसका बिकाश एक तीर्थ स्थल के रूप में रह गया। में कुशीनारा व जनपद का पावा नगरी दोंनो विकसित हो चुके थे। ग्यारहबीं शताब्दी से लेकर उन्नीसबीं शताब्दी के उतरार्द्ध तक का काल अन्धकार युग कहलाता है। इस काल में कोई निर्माण नहीं मिल हो सका है जो मंदिर स्तुप या विहार किसी समय निर्मित हुए थे। समय के गति के साथ धारी साही होते गये। इनका प्रमाणित इतिहास आज भी उपलब्ध नहीं है। पर इतना जरूर है कि मुस्लिम शासकों ने कई बार आक्रमण पर कुशीनगर को विनाश के गर्त में विलीन कर दिया। मुहम्मद बिन खिलजी के आक्रमण के बाद इस क्षेत्र का सर्वांगीण विकास विनाश की तरफ उनमुख होता गया और यह क्रम धीरे-धीरे ऐसा चला कि लोग कुशीनगर का नाम तक भुल गये विभिन्न स्थानीय नामों से कुशीनारा को सम्बोधित करने लगे। विनाशा के बाद जो स्तुप तथा विहार भग्नावशेष बचे रहे लोगों ने नया नाम दे दिया लोग माथा कुवॅर कोट के नाम से पुकारने लगे। समस्त टीले लगभग 10 एकड़ में इधर - उधर बिखरे हुए पड़े थे। इन्हीं टीलों के एक स्थान पर एक पत्थर की मुर्ती पड़ी हुयी थी सम्भवतः इसी लिए यह किला माथा कुवॅर कोट के नाम से स्थानीय जनता में प्रसिद्ध था। बरसात के दिनों में इस ऊॅचे भू-भाग पर घास उगाते थें और यह इस मैदान को लोग चारागाह के रूप में उपयोग करते थे।
इत्तेफाक कहिएं की अंग्रेजी हुकुमत के स्थापना के बाद राजकीय अधिकारी इसी कुशीनारा के सर्वे कार्य के लिए आते जाते रहे। जिसमें बुशन्न, विल्सन तथा कनिंघम प्रमुख थे। कुशनन 1830 ई0 के आस-पास कुशीनारा आया और कसिया में ठहरा उसने इस स्थान के निरीक्षण करने के बाद लन्दन के प्रकाशित एक पत्रिका में अपने लेख टोगों ग्रेफी एण्ड स्टेटिरिटनस ऑफ र्दस्टर्न इण्डिया 1838 में इस स्थान को माता कुवॅर लिखा है। लेकिन उसने ऐसा कोई सन्दर्भ नहीं उल्लेखित किया कि जो बौध धर्म से सम्बन्धित कुशीनारा होने का इसे प्रमाणित करता हों। उसके बाद एच0एच0 विल्सन ने 1854 ई0 मंे इस स्थान को देखा और सम्भावना व्यक्त की कि कसिया ही कुशीनगर है। पुनः भारत सरकार सर्वे पर जर्नरल कनिंघम 1862 मंे आया। भारतीय पुरातत्व का उसे विशेष ज्ञान था। उसने माथा कुवॅर को कोट को फोर्ट ऑफ डेड प्रिंस लिखा उसकों अनुमान था कि माथा कुंवर मष्त कुमार का अपभ्रंस है और सम्मयत अध्ययन के बाद कनिंघम इस निष्कर्ष पर पहूॅचा कि यह स्थान मष्त साम्य कुमार बुद्ध से सम्बन्धित है। जिसके सापेक्ष उसने मत दिया कि यहीं स्थान महात्मा बुद्ध के परिनिर्माण का स्थान कुशीनारा है। कनिंघम के पश्चात एक सहायक ए0सी0 कारलाइल कुशीनगर में 1876 मंे आया इसकी विस्तष्त खुदायी करायी मलवे हटाने के पश्चात स्तूप का प्राचीन रूप प्रत्यक्ष होने लगा। इसके साथ पश्चिम दिशा में समीप ही भगवान बुद्ध की लेटी हुयी प्रतिमा मिली जिससे यह स्पष्ट हो गया है कि यहीं स्थान कुशीनारा है। 1930 ई0 से पूर्व इस स्थान को माथा कुवॅर के नाम से जाना जाता रहा। प्राचीन बौद्ध साहित्य ने कुशीनारा के नाम से सम्बोधित किया जाता रहा। कुशीनारा से कुशीनगर नाम 1934 ई0 में प्रचार में आया और जगत प्रसिद्ध हुआ। वहीं चीनी यात्री फह्यान 410 ई0 में अपने देश चीन से चला था। वह चीन के मोबी मरूस्थल से होता हुआ उत्तर पश्चिम भारत में प्रवेश करता हुआ तक्षशीला पुरूषपुर, मथूरा, कान्यकुब्ज शाख, श्रावस्ती, कपिलवस्तु होता हुआ कुशीनारा पहॅुचा था। पुनः बैशाली पाटलीपुत्र राजगिरि होता हुआ नाव द्वारा लंका चला गया और वहा से चीन वापस लौट गया। इस यात्रा में उसे 13 वर्ष लगे थे उसने अपने यात्रा के वष्तान्त में लिखा था कि नगर के उत्तर साल के दो वष्क्षों के बीच निरंजना नदी के किनारे पर भगवान के उत्तर सिर करके परिनिर्वाण प्राप्त करने का स्थान है। सुभद्रवती के अर्हत होने का स्थान है सुवर्ण की नाव में भगवान की 7 दिन पुजा करने का स्थान है। बज्रपाणि के स्वर्ण गदा भेकने का स्थान है और 8 राजाओं का धातु का अंश लेने का स्थान है। सब जगह स्तूप बने हुए है। संघाराम है जो अब तक है। नगर के बस्ती कम व विरल है। नगर उजार पड़ा है, तो वहीं ह्वेनसांग जो फह्यान से दो वर्ष बाद भारत आया उसने अपने यात्रा के वष्तांत में लिखा कि इस राज्य की राधानी बिल्कूल ध्वस्त हो चुकी है इसके नगर तथा गॉव जनशून्य तथा उजाड़ है। प्राचीन ईंटों की दीवारें है जिनकी केवल बुनियादें रह गयी है। राजधानी चारों तरफ 10 मीटर की घेरे में है। नगर के निवासी बहुत थोड़े और मुहल्ले उजाड़ है। नगर के द्वार के पुर्वोत्तर कोने में स्तूप अशोक का बनवाया हुआ है। नगर के उत्तर पश्चिम 3-4 मीटर दूर अजीत नदी के उस पार अर्थात पश्चिम तट पर पहूचे जहां इस बाग मेें चार साल के वष्क्ष बहुत ऊँचे है। यह तथागत के मष्त्यु स्थान को सूचित करते है यहा ईटो का बना बिहार है। इसके अन्दर बुद्ध देव की मुर्ती एक निर्वाण मुद्रा में बनी हुयी है। वह सोते पुरूष के समान उत्तर दिशा में सिर करके लेटी हुयी है। बिहार के पास एक स्तूप बना हुआ है जो खण्डहर हो गया हैं इसकी ऊॅचाई 200 फीट है इसके आग एक स्तम्भ खड़ा हुआ है। इस पर तथागत का एक इतिहास लिखा हुआ है।
ह्वेनसांग ने कई स्तूपों का वर्णन किया है। एक स्तूप उनके पूर्व जन्म के विवरण का है। उस समय वह एक पक्षी के रूप में थे। उस समय उन्होंने वन में लगी आग को बुझा कर पक्षियों को जलने से बचाया था। एक अन्य स्तूप सुभद्रब्राह्मण का है इसी प्रकार द्रोण के मरने के स्थान पर भी एक स्तूप बना है। नगर के उत्तर नदी के उस पर 300 पग चलकर एक बहुत बड़ा स्तूप बना है यह वहंी स्थान है जहॉ तथागत के शरीर का अग्नि संसकार किया गया था जो कोयला तथा भस्म के संयोग से अभी वह भूमि श्यामयुक्त पीली है। दोंनो चीनी चात्रियों के स्मर्ण से कुशीनगर के प्राचीन स्थिति पर प्रकाश पड़ता है और इससे जाहिर होता है कि कुशीनारा वर्तमान एक किमी0 दूर दक्षिण पूरव में बसा था। बीच में अजीत नामक नदी बहती थी इससे स्पष्ट होता है कि कुशीनारा अनुरूदवां तथा उसके पूरव में बसा था हालाकि फ्यूर्रर का मत है कि कुशीनगर की अधिकांश ईंटे तथा पुरातात्विक साक्ष्य लुप्त हो गये है। इसके खण्डहर आज भी दृष्टिगोचर नहीं हो रहे है। यह सभी भूमि में विलिन हो गये है यह माना जा सकता है कि छोटी गण्डक नदी मे आयी बाढ़ से प्रभावित हुए या उसके मार्ग परिवर्तन के कारण कट कर धारा मंे विलिन हो गये। कुशीनगर के पूरव में आज भी उस नदी का छोड़ा हुआ भाग दिखायी देता है। कुशीनगर का वर्तमान अनवेषक ए0सी0 कारलाइल में अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि खोदायी के समय ऐसे चिन्ह में जैसे ज्ञात होता है कि कभी कोई नदी यहॉ बहती थी उसके उत्तर पूर्वी खण्डहरों के ऊपर बालू की बारिक परते मिली पडी थी। सम्भव है कि उसी नदी की बालू की बारिक परते बिछ गयी हों। उत्खन्नों से प्राप्त हुआ कि बुद्ध परिनिर्वाण स्थली कुशीनगर का वह दिव्य स्थान यहीं है। इसी क्रम में 1904 तथा 1907 ई0 में जे0पी0एन0 गोयल तथा 1910 से 19112 में हीरानन्न शास्त्री के निर्देशन में खुदाई का कार्य चला इस उत्खन्न में कई मुद्राएं मिली जिस पर श्री महापरिनिर्वाण बिहारें भिक्षुसंघस्य कुशीनगर तथा ताम्रपत्र पर परिनिर्वाण र्चैत्य ताम्रपट्टय अंकित था जिससे स्पष्ट हो गया कि यहीं भगवान बुद्ध की परिनिर्वाण स्थली है 1911 में 7 मार्च को पण्डित हीरानन्द शास्त्री के पुत्र सच्चिदानन्द वात्सायन अज्ञेय का जन्म कुशीनगर स्थित माथा कुवॅर मंदिर के पास एक शिविर में हुआ था।
आज कुशीनगर वर्तमान परिस्थितियोें में विश्व के मानचित्र पर एक बौद्धतीर्थ के रूप मे विख्यात हो चुका है। यहॉ जनता शासन व धर्मानुयायियों के सहायता से मैत्रेय परियोजना जैसी विशालकाय परियोजना जिसके तहत भगवान मैत्रेस भगवान बुद्ध की 500 फीट ऊँची प्रतिमा बनायी जायेगी। यहां के स्तूपों ध्वंनसावशेष प्राचीन खण्डहरो, सभागार स्तूप एवं तमाम जनकल्याणकारी योजनाओं को लगाकर कुशीनगर के जनता के विकास के लिए शासन धर्मानुयायी प्रयासरत है। वर्तमान कुशीनगर महापरिनिर्वाण मंदिर स्तूप, माथाकुंवर का मंदिर, विहारों के ध्वंसावशेष, प्राचीन राजधानी के खण्डहर सभागर, स्तूप, हरिण्यावती नदी, निर्वाण धर्मशाला, अष्टधातु निर्मित विशाल घंटा, भिक्षु महावीर की समाधि, भिक्षु सीमाग्रह, शरणार्थी धर्मशाला, विड़ला धर्मशाला, चीनी मंदिर आज भी तथागत भगवान बुद्ध की यादों को तरोताजा कर देती है यहां आने वाले बौद्ध अनुयायी, बौद्ध भिक्षु अपने आप में बड़ा शान्ति पाते है उनकी मनोकामना यहीं रहती है कि हम बसे तो कुशीनगर जो आज भीड़युक्त शहर के रूप मे विकसित होता जा रहा है। जहॉ यातायात के साधन के रूप में हवाई यात्रा व अच्छे होटल, जो आगन्तुकों को बेहतर सुविधा देने के लिए शासन इसके व्यवस्था में जुटा है और प्रयास कर रहा है कि अतिशीघ्र इस बौद्ध परिपथ को विकसित किया जाय।